वैसे तो सभी जानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को इन्द्र के मद को भंग करने के लिए गोवर्धन पर्वत उठा लिया था, अब दूसरा कारण भी जान लेते हैं और इसका सार समझते हैं
जब भगवान श्री कृष्ण गोकुल वासियों को इन्द्रदेव के प्रकोप से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत उठाने वाले थे तो उन्होंने अपनी उंगलियों से पूछा कि वे किस पर यह पर्वत उठाएं।
सबसे पहले अंगूठा बोला, ‘मैं नर हूँ। बाकी उंगलियाँ तो सब नारी रूप हैं। अत: आप पर्वत मुझ पर उठाएँ।
फिर तर्जनी बोली, ‘‘किसी को यदि चुप कराना हो या कोई संकेत देना हो तो मैं ही काम आती हूँ, इसलिए आप केवल मुझ पर ही पर्वत उठाएँ।
इसके बाद मध्यमा बोली, ‘‘सबसे बड़ी होने के साथ-साथ मैं शक्ति भी रखती हूँ। अत: आप पर्वत मेरे ऊपर उठाएँ।
फिर अनामिका बोली, ‘‘सभी पवित्र कार्य मेरे द्वारा ही सम्पन्न होते हैं, मन्दिरों में देवी-देवताओं को भी मैं ही तिलक लगाती हूँ। अत: आप मुझ पर ही गोवर्धन उठाएँ।
अब भगवान ने सबसे छोटी उंगली; कनिष्ठा की ओर देखा तो उसके नेत्र बरबस ही भर आये। वह भरे नेत्रों के साथ बोली, भगवन, एक तो मैं सबसे छोटी हूँ, मुझ में कोई गुण नहीं है। मेरा कहीं उपयोग भी नहीं होता। मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं पर्वत उठा सकूँ। मुझे केवल इतना पता है कि मैं आपकी हूँ।
छोटी उंगली की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न हो गए और बोले, कनिष्ठे, मुझे विनम्रता ही तो पसन्द है। यदि कुछ पाना है तो विनम्र बनना पड़ेगा, दीन होना पड़ेगा।
तब श्रीकृष्ण ने छोटी उंगली को सम्मान देते हुए उसी पर गोवर्धन पर्वत उठाया।
इस वार्ता से यह शिक्षा मिलती है कि कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए। विनम्र और सरलता ही प्रभु को रिझा सकती है।
रिपोर्ट – राहुल शर्मा