
हाल ही में रिलीज़ हुई आमिर ख़ान की फ़िल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ ना सिर्फ़ एक सिनेमाई अनुभव है, बल्कि यह भारतीय सिनेमा में एक साहसिक कदम के रूप में भी देखी जा रही है। फ़िल्म ने अपने अनोखे विषय, संवेदनशील प्रस्तुति और खास तौर पर अपने स्टारकास्ट के लिए सुर्खियाँ बटोरी हैं — जिसमें शामिल हैं डाउन सिंड्रोम और ऑटिज़्म जैसी स्थितियों वाले वास्तविक न्यूरोडाइवरजेंट कलाकार।
यह फ़िल्म बॉलीवुड की उस नई लहर का हिस्सा है जो विविधता और समावेशन को सिनेमा के केंद्र में ला रही है। आमिर ख़ान ने न सिर्फ मुख्य भूमिका निभाई है, बल्कि समाज के उस नज़रिए पर भी सवाल खड़े किए हैं जो विकलांगता को दया या बोझ के चश्मे से देखता है।
फिल्म का एक सशक्त संवाद बना बहस का विषय
फ़िल्म के एक सीन में, एक कोर्ट रूम के भीतर जज आमिर ख़ान के किरदार को निर्देश देती हैं कि वे इंटलेक्चुएली डिसएबल्ड युवाओं की एक बास्केटबॉल टीम को प्रशिक्षित करें। जवाब में आमिर का किरदार कहता है:
“मैडम तीन महीनों के लिए पागलों को सिखाऊँगा मैं? और ये क्या बात हुई पागल को पागल मत बोलो?”
यह संवाद फ़िल्म के उद्देश्य को सीधे तौर पर उजागर करता है — कि समाज में मौजूद भाषा, दृष्टिकोण और सोच में बदलाव की ज़रूरत है। इस संवाद को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चा तेज़ है। जहाँ कुछ लोगों ने इसे क्रूड या चौंकाने वाला माना, वहीं अधिकतर दर्शकों ने इसे एक mirror to society यानी समाज को दिखाया गया आईना बताया।
असली चेहरों के साथ असली कहानियाँ
इस फ़िल्म की एक खास बात यह भी है कि इसमें विकलांगता को केवल अभिनय का हिस्सा नहीं बनाया गया, बल्कि जिन पात्रों को न्यूरोडाइवरजेंट दिखाया गया है, उन्हें असल में वही लोग निभा रहे हैं। इससे फ़िल्म न सिर्फ़ प्रामाणिक लगती है, बल्कि यह एक उदाहरण भी प्रस्तुत करती है कि मनोरंजन की दुनिया में समावेशन संभव है — और ज़रूरी भी।
संदेश और समाज
‘सितारे ज़मीन पर’ विकलांगता को नज़रअंदाज़ करने की बजाय उस पर संवाद शुरू करता है। यह फ़िल्म दिखाती है कि चुनौतीपूर्ण दिखने वाली स्थितियाँ भी सपनों के रास्ते में रोड़ा नहीं, बल्कि ताक़त बन सकती हैं — अगर उन्हें समझने और स्वीकारने का नजरिया बदला जाए।
निष्कर्ष
आमिर ख़ान की यह फ़िल्म सिर्फ एक मनोरंजक कहानी नहीं है, बल्कि यह समाज को खुद पर पुनर्विचार करने की चुनौती देती है। न्यूरोडाइवरजेंट लोगों की भागीदारी को लेकर जो साहसिक क़दम इस फ़िल्म ने उठाया है, वह भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक प्रेरणादायक अध्याय बन सकता है।
